शनिवार, जुलाई 10, 2010

क्यों मेरी आदत बिगाड़ना चाहती हो ?

रश्मि जी के ब्लॉग 'अपनी ,उनकी, सबकी बातें 'पर जावेद अख़्तर साहब की एक खूबसूरत नज़्म " वो कमरा " पढ़ी । मुझे याद आई कुछ कवितायें जो कवियों ने कमरों पर लिखी है । अज्ञेय की एक कविता भी याद आई ..." वहाँ विदेशों में कई बार कई कमरे मैंने छोड़े हैं / जिन में छोड़ते समय/ लौटकर देखा है / कि सब कुछ /ज्यों का त्यों है न ?/यानि कि कहीं कोई छाप / बची तो नहीं रह गई है / जो मेरी है / जिसे कि अगला किरायेदार / ग़ैर समझे " ( अज्ञेय- विदेश में कमरे )  । फिर मुझे याद आया अपनी बैचलर लाइफ के दौरान ऐसी ही एक कविता मैंने भी लिखी थी । उस वक़्त न टी वी होता था न मोबाइल ,न ही एटीएम कार्ड ,सो जो कुछ होता था वह कविता में उपस्थित है । रश्मि जी के आग्रह पर वह अनगढ़ सी कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

                                               मेरा कमरा
फर्नीचर सिर्फ फर्नीचर की तरह
नहीं इस्तेमाल होता है
एक बैचलर के कमरे में

बुर्जुआ उपदेशों की तरह
मेज़ पर बिछा घिसा हुआ कांच
नीचे दबे हुए कुछ नोट्स
रैक पर रखी मार्क्स की तस्वीर के साथ
चाय के जूठे प्यालों की
तलहटी में जमी हुई ऊब
किनारे पर किन्ही होंठों की छाप

पलंग पर उम्र की मुचड़ी चादर पर फ़ैली
ज़िन्दगी की तरह खुली हुई किताबें
अधूरी कविता जैसे खुले हुए कुछ कलम
तकिये के नीचे सहेजकर रखे कुछ ताज़े खत

अलग अलग दिशाओं का ज्ञान कराते जूते
कुर्सी के हत्थे से लटकता तौलिया
खिड़की पर मुरझाया मनीप्लांट
खाली बटुए को मुँह चिढ़ाता

एक रेडियो खरखराने के बीच
कुछ कुछ गाता हुआ और एक घड़ी
ग़लत समय पर ठहरी हुई  

मेरे सुंदर सुखद सुरक्षित भविष्य की तरह
इन्हे सँवारने की कोशिश मत करो
मुझे यह सब ऐसे ही देखने की आदत है
क्यों मेरी आदत बिगाड़ना चाहती हो ?   

                              - शरद कोकास