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सोमवार, जून 04, 2012

1988 की कवितायें - नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता - 2

नींद न आने की स्थिति में लिखी कविताओं में से यह दूसरी कविता । यह कविता भी कुछ हल्के- फुल्के मूड में ही लिखी गई थी और व्यंग्य इसका केन्द्रीय भाव था । आगे चलकर इस विषय पर कुछ गम्भीर कवितायें आई हैं । लीजिये फिलहाल तो इसे पढ़िये और इसका मज़ा लीजिये ।


 नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता – दो

नींद को कहीं
नज़र न लग गई हो
चचा ग़ालिब की
उन्हें मौत का ख़ौफ था
हमे ज़िन्दगी का है

आश्चर्य !
पीने के बावज़ूद
उन्हें नींद नहीं आती थी

आसमान की ओर देखते हुए
कोशिश में हूँ
बूझने की
चचा ग़ालिब ने यह शेर
शादी से पहले लिखा था
या बाद में ।
                        शरद कोकास 

शुक्रवार, जून 01, 2012

1988 की कवितायें - नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता - एक

यह उन दिनों की बात है जब सचमुच रातों को नींद नहीं आती थी । नींद न आने पर मैं कविता लिखता था और कविता लिखते ही नींद आ जाती थी । इस तरह जब पाँच - सात कवितायें बन गईं तो मैंने इस श्रंखला को नाम दिया ' नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता । इस श्रंखला की यह पहली कविता जो कथाकार मित्र मनोज रूपड़ा को बेहद पसन्द थी । वह इसे पढ़ता था और ज़ोर ज़ोर से हँसता था । अब क्यों हँसता था पता नहीं ?
लीजिये आप भी पढ़िये ।

 नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता –एक

मुझे नींद नहीं आ रही है
आ रहे हैं विचार
ऊलजलूल
कितना मिलता है यह शब्द
उल्लुओं के नाम से

क्या उल्लू दिन को सोता है
उसे नौकरी नहीं करनी पड़ती होगी
मेरी तरह शायद

उल्लू तो ख़ैर
उल्लू ही होता है
उल्लू का नौकरी से क्या
लेकिन क्या उल्लू प्रेम भी करता है
क्या पता
शायद नहीं
उल्लू तो आखिर
उल्लू ही होता है ना
लेकिन फिर क्यों
वह जागता है रात भर

मैं भी कितना उल्लू हूँ
उल्लू और आदमी के बीच
खोज रहा हूँ
एक मूलभूत अंतर ।

                        शरद कोकास