1987 लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
1987 लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, अप्रैल 02, 2012

पिछली 25 तारीख को भिलाई के कथाकार लोकबाबू के कथा संग्रह ' बोधिसत्व भी नहीं आये ' का विमोचन हुआ । संग्रह पर बात करते हुए कथाकार परदेशी राम वर्मा ने कहा कि लोकबाबू की कहानियों में एक पात्र रिक्शेवाला अवश्य होता है । दर असल यह साइकल रिक्शेवाला हमारे समाज का ही एक पात्र है सो हमारी कविता कहानियों में तो आयेगा ही । मुझे याद आया , एक कविता मैंने भी रिक्शेवाले पर लिखी थी । आप भी देखिये , एक कवि कैसे देखता है , रिक्शेवाले और रिक्शे में बैठने वाले को । जी , यह भी 1987 की ही कविता है ।

 रिक्शेवाला 


उसके पाँवों में इकठ्ठा ताकत
शाम को रोटी बन जायेगी
माथे से टपकता पसीना
नन्हे बच्चे के लिये दूध
आँखों के आगे गहराता
नसों से निकलता अन्धेरा
गवाह रहेगा
आनेवाली खुशहाल सुबह का

रिक्शे की गुदगुदी सीट पर
बैठने का सामर्थ्य रखने वाले लोग
राह चलते रोयेंगे
खाली जेबों का रोना
समय काटू बातों के बीच
पूछेंगे शहर के मौसम
और सिनेमा हॉल में लगी
नई फिल्म के बारे में
खस्ताहाल सड़कों को लेकर
शासन को गालियाँ देते हुए
उतरते वक़्त थमा देंगे
रेज़गारी के साथ
उसके लुटेरे होने का प्रमाणपत्र

वह जानता है
इन थुलथुल व्यक्तियों के पास
लिजलिजी दया के अलावा
और कुछ नहीं है ।
                        - शरद कोकास 
( चित्र गूगल छवि से साभार ) 

शुक्रवार, मार्च 16, 2012

1987 की एक और कविता

बचपन में अपने जन्मगृह बैतूल की वे शामें याद हैं जिनमें मेरे ताऊजी मुनिश्री मदन मोहन कोकाश ,मकान के दालान में बैठकर रामचरित मानस का पाठ करते थे । मोहल्ले के लोग , उनके मित्र  , और भी जाने कहाँ कहाँ से लोग आकर बैठ जाते थे । कोई फेरीवाला , कोई भिखारी , कोई दुकानदार । सर्दियों के दिनों में अलाव भी जल जाता था । बड़े होने पर रामकथा के पाठ का यह बिम्ब याद रहा और उसने इस तरह कविता का रूप लिया ।अगर आप ध्यान से देखेंगे तो एक महत्वपूर्ण बात कही है मैंने इस कविता में । 

राम कथा 

कम्बल के छेदों से
मदन मोहन कोकाश 
हाड़ तक घुस जाने वाली
हवा के खिलाफ
लपटों को तेज़ करते हुए
वह सुना रहा है
आग के इर्द गिर्द बैठे लोगों को
राम बनवास की कथा

राम थे अवतारी पुरुष
राम ने आचरण किया
सामान्य मनुष्य की तरह
राम और कहीं नहीं
हमारे तुम्हारे भीतर हैं

अवचेतन में बसे चरित्र की
विवेचना करते हुए
वह विस्मय भर देता है
सबकी आँखों में
वह गर्व से कहता है
उसने यह तमाम बातें
कल अपने मालिक के घर सुनी थी
एक पहुंचे हुए फकीर के मुख से

चिनगारी की तलाश में
बैतूल का वह मकान 
फूँकते हुए राख का ढेर
वह सोचता है
राम तो राजा थे
उसके मालिक भी राजा हैं
उसकी नियति तो बस
प्रजा  होना है ।
                      - शरद कोकास

मंगलवार, फ़रवरी 21, 2012

1987 की यह एक कविता और


टटोला हुआ सुख

धरती से निकले
आस्था के अंकुरों में
ननकू देखता है सुख

जवान लड़के की
फटी कमीज़ से झाँकती
ज़िम्मेदारियों की माँसपेशियों में
ननकू टटोलता है सुख

ट्रांज़िस्टर लेकर शहर से लौटे
पड़ोसी के किस्सों में
ननकू ढूँढता है सुख

रेडियो पर आने वाले
प्रधानमंत्री की
विदेश यात्रा के समाचार में
ननकू पाता है सुख

ननकू को यह सारे सुख
उस वक्त बेकार लगते हैं
जब उसका बैल बीमार होता है ।
                        - शरद कोकास 

रविवार, जनवरी 29, 2012

1987 की कवितायें - महाराष्ट्र में मेरा बचपन बीता है । दलित आन्दोलन को वहाँ मैंने बहुत करीब से देखा था । मेरे कई दलित मित्रों के  साथ मैंने दलित साहित्य भी पढ़ा था और उस छटपटाहट को महसूस किया था जो ऐसे घुटन भरे वातावरण में रहने से होती है । इतिहास का तो मैं विद्यार्थी था ही । उस दौर में जब आज़ादी से प्राप्त सारे सपने चूर चूर हो चुके थे और कहीं कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था सिवाय आन्दोलन के और कोई चारा नहीं था । मराठी दलित साहित्य के प्रभाव में कुछ कवितायें मैंने रची थीं जिन्हे बाद में सुश्री रमणिका गुप्ता ने " युद्धरत आम आदमी " के दलित साहित्य विशेषांक में प्रकाशित किया । इन कविताओं में भाषा के उस तेवर को आप देख सकते हैं , जिसमें साहित्य की उस मध्यवर्गीय भाषा के प्रति एक विद्रोह भी था ।


 इतिहास की प्रसव वेदना

बहुत दे चुके गालियाँ हम व्यवस्था को
और सो चुके उसकी माँ बहनों के साथ
व्यवस्था अभी तक ज़िन्दा है
एक अभेद्य कवच के भीतर
अपनी आँखों में एक सपना
और दिल में
आहत होने का दर्द लिये हम
अभी तक बाहर हैं
व्यवस्था की
चयन प्रक्रिया की परिधि से
व्यवस्था ने चुन चुन कर
हमारे बीच से
कुछ सफेद पोशों को
बसा लिया है अपने हरम में
उनसे पैदा नाजायज़ औलादों को
पालने की  ज़िम्मेदारी
सौंप दी है हम सबको
हम दूध की जगह पिला रहे हैं
उन्हें अपना खून
बच्चो के मुँह से छीन कर निवाला
भर रहे हैं उनका पेट
हम भूल चुके हैं यह तथ्य
साँप का बच्चा
दूध पीने की बावज़ूद
बड़ा होकर दूध नही ज़हर उगलता है

दोस्तों आन्दोलन कोई रतिक्रिया नही है
यह तो उसके बाद की प्रक्रिया है
जब दिमागों में पलते हैं विचार
भ्रूण की तरह
और जन्म लेती है एक नई व्यवस्था

दोस्त अभी तो अत्याचार और उठेंगे
पेट में दर्द की तरह
यह घबराने का वक्त नहीं है
यह इतिहास की प्रसव वेदना है ।