शुक्रवार, दिसंबर 23, 2011

1986 की यह एक और कविता है । मुझे बिलकुल याद नहीं आ रहा है कि यह किस सन्दर्भ में लिखी थी , लेकिन इन दिनों आन्दोलनों और बहस के बीच कई मुद्दे हैं , हो सकता है  कहीं न कहीं इसका सन्दर्भ जुड़ जाए ।


                        हो सकता है

सबूतों और गवाहों को लेकर
शुरू होने वाली
एक स्वस्थ्य बहस
हो सकता है तब्दील हो जाये
किसी खूनी लड़ाई में

हो सकता है
अहंकारों के थकते ही
रेत पर गिरे
आस्था के स्वेदकणों की
तलाशी ली जाये

ढूँढी जाये
मित्रता की परिभाषा
ढूंढा जाये
समाज की प्रयोगशाला में
सम्बन्धों को जोड़ने वाला रसायन

मक्कारी के नाखूनों से
ताज़े ज़ख्मों की परत
उधेड़ने वाले लोग
उन्हें एक दूसरे के खिलाफ ज़हर उगलता देख
अपने होंठ चौड़े कर ले

हो सकता है
स्वार्थ और
बहकावे के
जूतो के तले में चिपका
विश्वास का कुचला चेहरा
सीढियों पर अटका रह जाये

सम्वेदनहीनता की तेज़ हवाएँ
सत्य के आवरण उतारकर
उसे नग्न कर दें
अदालत के कटघरे में

शायद तब भी
अदालत की पिछली बेंच पर बैठा
व्यवस्था का एक छुपा चेहरा
मुस्कराता ही रहे ।

                        - शरद कोकास 

बुधवार, दिसंबर 14, 2011

1986 की यह एक कविता


                       संगीन की नोंक

मैने फिर सुनी नींद में
गोलियाँ चलने की आवाज़
एक दो तीन चार
पाँच छह सात आठ
मुझे लगा मेरा बच्चा
गुनगुनी धूप में बैठकर
गिनती याद कर रहा है

मैने देखा सपने में
बिखरा हुआ खून
पाँवों में महावर लगाते हुए
शायद पत्नी के हाथ से
कटोरी लुढक गई है

 बम फटने की आवाज़ें
धुएँ का उठता बवंडर
शायद मोहल्ले के बच्चे
दीवाली की आतिशबाज़ी में व्यस्त हैं

फिर ढेर सारी आवाज़ें
भारी भरकम बूटों की
कल मेरा जवान भाई कह रहा था
उसे जाना है सुबह सुबह
परेड की तैयारी में
शायद उसके दोस्त
उसे लेने आये हैं
फिर कुछ औरतें
आँखों में लिये आँसू
पिछले दिनो ही तो मैने
अपनी लाड़ली बहन को विदा किया है
डोली में बिठाकर

मैने चाहा बारबार
खोलकर देखूँ अपनी आँखें
निकल आऊँ बाहर
चेतन अचेतन के बीच की स्थिति से
लेकिन नींद  में
सुख महसूसने की लालसा में
सच्चाइयाँ खड़ी रहीं पीछे

यकायक संगीन की तेज़ नोक
मेरी सफेद कमीज़ को
सीने से चीरते हुए
पेट तक चली आई
मेरी खुली आँखों के सामने थी
खून के सैलाब में डूबी हुई
मेरी पत्नी की लाश
पहाड़ों की किताब पर
मासूम खून के छींटे
एन सी सी की वर्दी व बूटों से दबी
जवान भाई की देह
फटी अंगिया से झाँकता
इकलौती बहन का मुर्दा शरीर
चीखने चिल्लाने की कोशिश में
मैने एक बार चाहा
बन्द कर लूँ फिर से अपनी आँखें
और पहुंच जाऊँ कल्पना की दुनिया में
लेकिन मेरा पुरुषत्व
नपुंसकता की हत्या कर चुका था
नोचकर फेंक दी मैने
अन्धे कुएँ में ले जाने वाली अपनी आँखें
 सपनो की दुनिया में भटकाने वाली
अपनी आंखें
सब कुछ देख कर भी
शर्म से झुक जाने वाली
अपने आंखें

संगीन की नोक
मेरे पेट तक  आकर रुक गई है
और मै नई आँखों से देख रहा हूँ
मेरी कमीज़ का रंग
अब लाल हो चला है ।
                        - शरद कोकास