इन दिनों यात्राओं का मौसम है । शादी ब्याह , घूमना फिरना ... । मैं भी पिछले दिनों रेल में यात्राएँ करता रहा । याद आती रहीँ अपनी कुछ पुरानी कवितायें ....
प्रेम,मोहब्ब्त,भाईचारा ,सद्भावना,कितनी बड़ी बडी बातें करते हैं हम मनुष्य ।साहित्य रचते हैं ,भाषण देते हैं, सभायें करते हैं,गोष्ठियाँ करते हैं ,जनान्दोलन करते हैं ,नाटक करते हैं और अब ब्लॉग भी लिखते हैं । भाईचारा इन दिनों सगे भाईयों के बीच भी नहीं पनप पाता फिर विभिन्न धर्मावलम्बियों,मतावलम्बियों और अलग अलग विचारों के लोगों के बीच पनपना तो बहुत बड़ी बात । हम एक दूसरे को जानते हैं लेकिन मिलते हैं तो पहचानते नहीं । कहने को एक दूसरे के दोस्त कहलाते हैं लेकिन पेश आते हैं दुश्मनों की तरह ।फिर भी हम कोशिश जारी रखते हैं कि यह भाईचारा जो कहीं गुम हो गया है ..फिर लौटकर मनुष्यों के इस घर में वापस आ जाये ।यह हमारा मनुष्य होने का गुण है ।
जब भी आप रेल से यात्रा करते हैं ,आपने देखा होगा ,पटरी के किनारे ,मैले कुचैले,नंग-धड़ंग कुछ बच्चे आपकी ओर देख कर हाथ हिलाते हैं ..कुछ लोग हिकारत की नज़रों से देखते हैं तो कुछ अनदेखा कर जाते हैं ।आपने सोचा है कभी ..इस बारे में .. ? मैने एक दिन भाईचारे के बारे में सोचते हुए इनके बारे में सोचा तो यह कविता बन गई .. आप भी पढ़ लीजिये .. लोहे के घर यानि रेलगाड़ी पर लिखी यह एक और छोटी सी कविता
रात के सन्नाटे में दूर कहीं किसी रेलगाड़ी की सीटी की आवाज़ सुनाई देती है । एक रेल धड़धड़ाते हुए किसी पुल से गुजर जाती है ..हवा में तैर जाता है एक हल्का सा कम्पन और सन्नाटे में गूंजता है दुश्यंत का यह शेर... ‘तू किसीरेल सी गुजरती है..मै किसी पुल सा थरथराता हूँ ।“
यह थरथराहट अवचेतन में बसे उन तमाम बिम्बों को सतह पर ले आती है जो अपनी बैचलर लाइफ में यात्राएँ करते हुए मैने सहेजे थे । एक रेल थी जो मुझे अपने शहर से दूर ले जाती थी और फिर कभी वापस लेकर नहीं आती थी । कभी आती भी थी तो फकत छुट्टियों में ..फिर वापस ले जाने के लिये ।
उन दिनों की स्मृतियों को सहेजता हूँ तो आज भी रेल में बैठते ही रेल का वह डिब्बा मुझे घर जैसा लगने लगता है , मै इसीलिये उसे “ लोहे का घर “ कहता हूँ । आपने भी इस बात को महसूस किया होगा कि यात्रा में जाने कितने परिवार मिल जाते है, कितने मित्र बन जाते है। हम उनसे कितना बतियाते हैं । बातें करते हुए अक्सर इतनी अंतरंगता हो जाती है कि जो बातें हम कभी किसी से नहीं कहते ट्रेन में मिले अपने सफर के साथी से कह देते हैं । यह जानते हुए भी हम दोबारा शायद ही कभी मिलें .. लेकिन अपने सुख-दुख बाँटना ,यही तो मनुष्य होना है ।
ऐसी अनेक रेल यात्राएँ मैने की हैं और इन यात्राओं में अनेक कवितायें लिखी हैं । “लोहे का घर “ शीर्षक से अलग अलग बिम्बों और चित्रों को लेकर यह कवितायें मेरे कविता संग्रह “गुनगुनी धूप में बैठकर “ में संग्रहित हैं । इस श्रंखला की यह पहली कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ ..कविता ज़रा रूमानी है ..लेकिन मेरी उन दिनों की उम्र का खयाल करके बर्दाश्त कर लीजिये .. और हर्ज़ क्या है आप भी ज़रा सा रूमानी हो जायें ..प्रेम करने और स्वप्न देखने की भी कोई उम्र होती है .भला .?
लोहे का घर
सुरंग से गुजरती हुई रेल
बरसों पीछे ले जाती है
उम्र के साथ
बीते सालों के
फड़फड़ाते पन्नों को
खिड़की से आया
पहचानी हवा का झोंका
किसी एक खास पन्ने पर
रोक देता है
एक सूखा हुआ गुलाब का फूल
दुपट्टे से आती भीनी भीनी महक
रात भर जागकर बतियाने का सुख
उंगलियों से इच्छाओं का स्पर्श
स्वप्न देखने के लिये टिकट लेना कतई ज़रूरी नहीं है ।
- शरद कोकास
(पिछले दिनो की गई एक यात्रा का चित्र ,इस यात्रा में अचानक बचपन के दो दोस्त मिल गये थे ..चन्द्रपाल और सूरजपाल दोनों सगे भाई ,मेरी यह तस्वीर चन्द्रपाल ने अपने मोबाइल से ली है )