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बुधवार, जुलाई 06, 2011

मरने के बाद कहाँ जाता है आदमी ?

यह बात हम सभी जानते हैं कि जिस तरह जीवन एक सत्य है ,मृत्यु भी उसी तरह एक सत्य है । फिर भी जब किसी की मृत्यु होती है हम उसे उस तरह स्वीकार नहीं कर पाते जिस तरह जीवन को स्वीकार करते हैं । ऐसा शायद इसलिये होता है कि हमने उस व्यक्ति के अस्तित्व को अपने जीवन में महसूस किया होता है और उसका विछोह हमें दुख देता है । विगत  8 जून को मुम्बई में मेरे चाचाजी का निधन हुआ । वहाँ से लौटा ही था कि समाचार प्राप्त हुआ कि 28 जून को एक और चाचा गुजर गए । परिवार के लिये यह शोक का समय है । पता है कि यह समय भी गुजर जाएगा और सब कुछ सामान्य हो जाएगा । फिर भी जो चला जाता है उसकी कमी तो महसूस होती है । इन दिनों बार बार याद आ रही है अपनी यह कविता जो मैंने 1995 में लिखी थी । हो सकता है मेरी तरह यह सवाल भी कभी आपके मन में आया हो ।


मरने के बाद कहाँ जाता है आदमी

यह तय है कि
स्वर्ग तो नहीं जाता
नर्क भी नही जाता है आदमी
 
मरने के बाद
यह भी तय है कि
किसी दूसरी देह में
नहीं समा जाती है
आदमी की रूह

और यह तो बिलकुल तय है कि
भूत नहीं बन जाता
अधूरी इच्छायें लिये
मर जाने वाला आदमी

आओ पृथ्वी
आओ आकाश
आओ अग्नि
आओ वायु
आओ जल

सच सच बताओ
मरने के बाद
कहाँ जाता है आदमी ? 

                   - शरद कोकास

बुधवार, अगस्त 18, 2010

ये तो साला निकला पक्का हिंदूवाला - नारायण सुर्वे


                 कामगार कवि नारायण सुर्वे नहीं रहे । पता नहीं किस माँ ने उन्हे जन्म दिया था . यह 1926 की बात है लेकिन एक मज़दूर गंगाराम सुर्वे को वे मैले कुचैले कपड़ों में मुम्बई के एक  फुटपाथ पर भटकते हुए मिले और वे इस अनाथ बालक को घर ले आये उसे पढाया- लिखाया और इस बेटे ने भी पूरी दुनिया में नाम कमा कर इस जीवन को सार्थक कर दिया । मुम्बई के आम आदमी का कवि , मजदूरों का कवि , मुफलिसों का कवि  , दलितों और उत्पीड़ितों का कवि और अनाथ बेघरों का कवि था नारायण सुर्वे । सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार से 1956 मे शुरुआत हुई और ढेरों पुरस्कार , मध्यप्रदेश का कबीर सम्मान .. क्या क्या नहीं मिला . लेकिन वह अंत तक रहा एक आम आदमी , एक सड़क का कवि । नारायण सुर्वे की यह चर्चित मराठी कविता “ शीगवाला “ मुझे मित्र कपूर वासनिक के ब्लॉग कविता वाहिनी पर मिल गई है । सोच रहा था अनुवाद करूँ ..लेकिन  हिन्दी मिश्रित इसकी मुम्बैया मराठी और  झोपड़पट्टी में बोली जाने वाली आम आदमी की वह भाषा , उसका अनुवाद कैसे कर सकता था सो आपकी सुविधा के लिये शब्द पर स्टार लगाकर कोष्टक मे अर्थ दे दिया है । उम्मीद है आप समझ जायेंगे.. अन्यथा समझाने के लिये हमारे मुम्बई के ब्लॉगर मित्र हैं ही । कॉमरेड नारायण सुर्वे को  सादर नमन सहित उनकी यह कविता – शरद कोकास   

शीगवाला

क्या लिखतो रे पोरा !
नाही चाचा - - काही हर्फ जुळवतो *                                ( जोड़ता हूँ )
म्हणता, म्हणता दाऊदचाचा खोलीत शिरतो*                    ( खोली में घुसता है )
गोंडेवली तुर्की टोपी काढून*                                           ( निकालकर )
गळ्याखालचा घाम* पुसून तो 'बीचबंद' पितो                     ( पसीना )
खाली बसतो
दंडा त्याचा तंगड्या पसरून उताणा* होतो.                        ( उलटा )

एक ध्यानामदी ठेव बेटा                                                 ( ध्यान मं रख )
सबद लिखना बडा सोपा* है                                            ( आसान )
सब्दासाठी* जीना मुश्कील है                                          ( शब्दों के लिये )

देख ये मेरा पाय 
साक्षीको तेरी आई* काशीबाय                                         ( माँ )
'मी खाटीक* आहे बेटा - मगर                                          ( कसाई )
गाभणवाली* गाय कभी नही काटते.'                                 ( गर्भवती गाय )            

तो - सौराज आला* गांधीवाला                                         ( आया )
रहम फरमाया अल्ला
खूप जुलूस मनवला चालवालोने 
तेरे बापूने - 
तेरा बापू चालका भोंपू ।

हां तर मी सांगत होता*                                                 ( कह रहा था )
एक दिवस मी बसला* होता कासाईबाडे पर                       ( बैठा )
बकरा फाडून रख्खा होता सीगपर 
इतक्यामंदी*  समोर* झली बोम                                      (इतने में सामने हुआ शोर  )        
मी धावला*  देखा -                                                      ( मैं दौड़ा ,देखा )
गर्दीने* घेरा था तुझ्या अम्मीला                                        ( भीड़ ने )
काटो बोला 
अल्ला हू अकबरवाला 
खबरदार मै बोला
सब हसले, बोले,
ये तो साला निकला पक्का हिंदूवाला 


"फिर काफिर को काटो !" 
अल्लाहुवाला आवाज आला
झगडा झाला ।
सालोने खूब पिटवला* मला                                                        ( मुझे पीटा )
मरते मरते पाय गमवला । 
सच की नाय काशिबाय* - ?                                                       ( काशी बाई )


'तो बेटे -
आता आदमी झाला सस्ता - बकरा म्हाग* झाला                              ( महँगा )
जिंदगीमध्ये* पोरा, पुरा अंधेर आला,                                           (ज़िन्दगी में )
आनि* सब्दाला                                                                       ( और ऐसा कौन है जो )
जगवेल* असा कोन हाये दिलवाला                                               ( शब्दों को जीवित रखेगा )         
सबको पैसेने खा डाला ।'

                              -- नारायण सुर्वे

रविवार, जनवरी 24, 2010

इनकी रोशनी में नहीं दिखाई देते अपने दुख दर्द

सिटी पोयम्स मुम्बई श्रंखला के अंतर्गत चार कवितायें 



1.सिटी पोयम्स मुम्बई – ऊँचे टॉवर्स

ऊंचे टॉवर्स की खिड़कियों से
छन छन कर आती रोशनी
भली लगती है

इनकी रोशनी में नहीं दिखाई देते
अपने दुख दर्द

इन रोशनियों के पीछे छुपे दुख दर्द भी
कहाँ दिखाई देते हैं ।


2 . सिटी पोयम्स मुम्बई – झोपड़े  


ऊंची ऊंची इमारतों के सिर पर
मुकुट की तरह सजा है चांद

इसी चांद को देखते हैं हम रोज़
अपने छोटे छोटे घरौन्दों से
इसी से बातें करते हैं हम
इसी से अपने सुख-दुख कहते हैं

कल जब मैं कहीं दूर चला जाउंगा
और हमारी बातें खत्म हो जायेंगी
चांद फिर उसी तरह ऊगेगा आसमान में
लेकिन वह कभी नहीं जान सकेगा
कि झोपड़ों में रहने वालों की पहुँच
आसमानों तक कभी नहीं होती ।










3 . सिटी पोयम्स मुम्बई- जुहू बीच –एक

नंगे पाँव रेत पर चलने का सुख
सिर्फ उन्हे महसूस होता है
जो कभी नंगे पाँव नहीं चलते ।
बाक़ी के लिये
सुख क्या और दुख क्या ?
 

4 . सिटी पोयम्स –मुम्बई – जुहू बीच – दो

मुठ्ठी से रेत की तरह
वक़्त के फिसलने का बिम्ब
यूँ तो बहुत पुराना है
और उससे भी पुराना है
एक ज़िन्दगी में
प्रेम के व्यक्त न हो पाने का बिम्ब

इसलिये इससे पहले कि यह ज़िन्दगी
दुख की किसी लहर के आने पर
पाँवों के नीचे की रेत की तरह फिसल जाये
कह दो जो कुछ कहना है
इसी एक पल में  ।

                      -शरद कोकास 

( चित्र -गूगल से व शरद के कैमरे से साभार )


 






बुधवार, जनवरी 13, 2010

मेरे चाचा - मामा का गाँव मुम्बई

                              मामा का गाँव                  
मैं बचपन से मुम्बई जाता रहा हूँ । उस समय से जब माटुंगा रेल्वे वर्कशॉप में बड़े मामाजी स्व.दयानन्द शर्मा वर्क्स मैनेजर थे और माटुंगा में रेल्वे के एक बड़े से  बंगले में रहा करते थे । मैने मुम्बई को सबसे पहले "मामा के गाँव "की तरह जाना । फिर 1975 में चाचाजी श्री वीरेन्द्र कोकाश भी वहाँ आ गये सबर्बन रेल्वे में । फिर बैतूल से छाया बुआ  विवाह के पश्चात वहीं आ गई  और मधु दीदी  भी । सभी के यहाँ कुछ न कुछ आयोजन होते रहते थे जो  मुम्बई में छुट्टियाँ बिताने के लिये  सबब बन जाते थे और इस तरह  लगभग हर साल मुम्बई का एक चक्कर लग ही जाता था ।
फिर कुछ ऐसा हुआ कि अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में उलझता  गया और मुम्बई जाना लगभग बन्द हो गया । इस बार बरसों बाद मुम्बई जाना हुआ तो वहाँ पहुंच कर ऐसा लगा जैसे अपने किसी बचपन के दोस्त से बरसों बाद मुलाकात हुई हो ।  मुम्बई मैं कभी पर्यटक की तरह  नहीं गया  इसलिये मैने मुम्बई को  एक पर्यटक की तरह कभी नहीं देखा ,न ही उस तरह जैसे कि अक्सर लोग फिल्मों में और धारावाहिकों में मुम्बई को देखते हैं । बचपन से ही पैदल घूमने की आदत रही सो मैं और मेरा ममेरा भाई अनिल हम दोनो जेब में लोकल का फ्री पास और एक दस का नोट रखे दिन भर स्टेशन दर स्टेशन भटकते रहते थे ।
इस बार मुम्बई में भटकते हुए दस-बारह छोटी छोटी कवितायें लिखीं । यह इस शहर की खासियत है कि यहाँ के दृश्य देखकर कविता अपने आप भीतर जन्म लेने लगती है । कई बार तो मुझे लगता है कि मेरे भीतर के कवि ने भी कहीं समन्दर के किनारे मुम्बई में ही जन्म लिया होगा... इसलिये कि स्कूल के उन दिनों जब मैं कविता लिखना सीख रहा था और शिल्प का मुझे बिलकुल ज्ञान नहीं था एक कविता मुम्बई में भी रची गई थी समन्दर के किनारे के दृश्य देख कर ।
मैने बचपन से आज तक जो कुछ भी लिखा है सब कुछ मेरी डायरियों में सुरक्षित है । सो कविता की इस पहली डायरी से बचपन में  लिखी यह कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ । कविता में शिल्प या कथ्य या विचारों की परिपक्वता को कृपया नज़रअन्दाज़ कर दीजियेगा और एक किशोर की कविता की तरह ही इसे पढियेगा । इस बार की मुम्बई यात्रा में जो कवितायें मैने “ सिटी पोयम्स मुम्बई ” के नाम से लिखी हैं वे दो –तीन दिनों बाद दूंगा ।
                                   

                                                कोलाहल
लहरों के पार डूबता सूर्य का जीवन
उसकी अस्पष्ट वाणी 
             दबकर रह गई   
             कोलाहल में 

प्रकृति के सागर से विशालतम
रेत को रौन्दता हुआ यह जनमानस का सागर
यह कोलाहल
इसमें सिमट आई हैं
खुशी की किलकारियाँ
आनन्द की अनुभूति
प्रेम की गुनगुनाहट
और क्रोध की चिनगारियाँ

क्या नहीं है इसमें
प्यार के झूठे –सच्चे वादे
साथ साथ जीने की कसमें
दिखावे की रसमें
इसमे निहित है कुछ उभरती आवाज़ें
मिल के भोपुओं की
जिनकी चिमनियों से निकल रहा है
अय्याशी का धुआँ
ये अट्टहास गूंजता है प्रासादों में
छिपा है स्वार्थ का राक्षस
ऐश्वर्य की बू
आश्वासनों और वादों में
लेकिन......................
इन बड़ी बड़ी आवाज़ों के पीछे
कुछ ऐसी आवाज़ें भी हैं
जो शायद डूब चुकी हैं
ये उठ नहीं सकतीं
क्योंकि इनमें है
दिनभर के श्रम की थकान
पेट की आग
और...............................
एक मांग
अन्न वस्त्र और मकान

इसमें है दर्द की स्वर लहरियाँ
झोपड़पट्टी में ज़िन्दा लाश सी
ग़रीबी की ठठरियाँ
दुख की आहें
और..............................
बेबसी का मौन
पर इन दबे स्वरों को सुनेगा कौन ?

उनकी पहुंच नहीं आसमानों तक
उनकी पहुंच नहीं इन कानों तक
ये आवाज़ें दबती जायेंगी अन्धेरे के साथ
इस तट की रेत में
और लहरों से टकराकर
इनका अस्तित्व यूँ ही समाप्त हो जायेगा ।

                                    - शरद कोकास
                                    c/o Mr D N Sharma c-97 wenden avenue matunga ,mumbai
                              
( प्रथम बार सार्वजनिक की गई यह अनगढ़ कविता अगर आपने यहाँ तक पढ़ ही ली है तो कृपया इसके लिये मेरा धन्यवाद स्वीकार करें – शरद कोकास )  


गुरुवार, नवंबर 26, 2009

मुम्बई 26 /11 की याद में...शहीदों को श्रद्धांजलि सहित


मेरी 1986 की डायरी से आतंकवाद के खिलाफ़ लिखी एक कविता                      

नोंच कर फेंक दी मैने अपनी आँखें 

मैने फिर सुनी नींद में
गोलियाँ चलने की आवाज़
एक दो तीन चार
पाँच छह सात आठ
मुझे लगा मेरा बच्चा
गुनगुनी धूप में बैठकर
गिनती याद कर रहा है

मैने देखा सपने में
बिखरा हुआ खून
पाँवों में महावर लगाते हुए
शायद पत्नी के हाथ से
कटोरी लुढक गई है

 बम फटने की आवाज़ें
धुएँ का उठता बवंडर
शायद मोहल्ले के बच्चे
दीवाली की आतिशबाज़ी में व्यस्त हैं

फिर ढेर सारी आवाज़ें
भारी भरकम बूटों की
कल मेरा जवान भाई कह रहा था
परेड की तैयारी में
शायद उसके दोस्त
उसे लेने आये हैं


फिर कुछ औरतें
आँखों में लिये आँसू
पिछले दिनो ही तो मैने
अपनी लाड़ली बहन को विदा किया है
डोली में बिठाकर


मैने चाहा बारबार
खोलकर देखूँ अपनी आँखें
निकल आऊँ बाहर
चेतन अचेतन के बीच की स्थिति से

लेकिन नींद  में
सुख महसूसने की लालसा में
सच्चाइयाँ खड़ी रहीं पीछे


यकायक संगीन की तेज़ नोक
मेरी सफेद कमीज़ को
सीने से चीरते हुए
पेट तक चली आई
मेरी खुली आँखों के सामने थी
खून के सैलाब में डूबी हुई
मेरी पत्नी की लाश
पहाड़ों की किताब पर
मासूम खून के छींटे
एन सी सी की वर्दी व बूटों से दबी
जवान भाई की देह
फटी अंगिया से झाँकता
इकलौती बहन का मुर्दा शरीर


चीखने चिल्लाने की कोशिश में
मैने एक बार चाहा
बन्द कर लूँ फिर से अपनी आँखें
और पहुंच जाऊँ कल्पना की दुनिया में

लेकिन मेरा पुरुषत्व
नपुंसकता की हत्या कर चुका था
नोचकर फेंक दी मैने
अन्धे कुएँ में ले जाने वाली अपनी आँखें
 सपनो की दुनिया में भटकाने वाली
अपनी आंखें
सब कुछ देख कर भी
शर्म से झुक जाने वाली
अपने आंखें


संगीन की नोक
मेरे पेट तक  आकर रुक गई है
और मै नई आँखों से देख रहा हूँ

मेरी कमीज़ का रंग
अब लाल हो चला है ।


                      शरद कोकास