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रविवार, मार्च 28, 2010

हम सब इज़्ज़तदार हैं......


हम सब इज़्ज़तदार लोग हैं .. । हम में से कितने लोग हैं जो इस बात से इंकार करेंगे ? कोई नहीं ना । ग़रीब  से ग़रीब आदमी भी कहता है " हमारी भी कुछ इज़्ज़त है । " वैसे पैसे और इज़्ज़त का कोई सम्बन्ध भी नहीं है । फिर भी कहा जाता है कि इज़्ज़त की फिक्र न पैसे वाले को होती है न ग़रीब को । हाँलाकि इज़्ज़त तो इन दोनो की भी होती है । लेकिन इज़्ज़त के नाम से सबसे ज़्यादा घबड़ाता है एक मध्यवर्गीय । अब ले-दे कर एक इज़्ज़त ही तो होती है उसके पास और जो कुछ भी होता है इसी इज़्ज़त को सम्भालने में ही खत्म हो जाता है । अब ऐसे निरीह प्राणि की भी कोई बेइज़्ज़ती कर दे तो ? बस ऐसे ही एक चरित्र को लेकर गढ़ी गई है यह कविता । 

                             इज़्ज़तदार
एक इज़्ज़तदार
बदनामी की हवाओं में
टीन की छत सा काँपता है
हर डरावनी आवाज़
उसे अपना पीछा करते हुए महसूस होती है
हर दृष्टि घूरती हुई
चर्चाओं कहकहों मुस्कानों का सम्बन्ध
वह अपने आप से जोड़ता है
अपनत्व और उपहास के बोलों को
एक ही लय में सुनता है

समय की चाल में
असहाय होकर देखता है
डर और साहस के बीच
खुद को खंडित होते हुए
कोशिश करता है भीड़ से बचने की
अपने लिये सुरक्षा के इंतज़ामात करता है
एक स्क्रिप्ट लगातार चलती है
उसके मस्तिष्क में
जहाँ वह अपने व्यक्तित्व के बचाव में
सम्वाद गढ़ता है

पपड़ी की तरह जमता है समय
उसकी पहचान पर
वह पैने नाखूनों से डरता है
उसे लगातार तलाश रहती है
पत्थर से विश्वास वाले दोस्तों की |

                        - शरद कोकास