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गुरुवार, सितंबर 17, 2009

विश्वकर्मा पर विश्व की एकमात्र समकालीन कविता

मनुष्य ने इस धरा पर जन्म लेने के उपरांत अपने श्रम से इसे रहने लायक बनाया । वहीं जब उसने निर्माण और संहार के देवताओं से परिचय प्राप्त किया तब श्रम के देवता के रूप में  विश्वकर्मा को अपना आराध्य बनाया । कालांतर में श्रम का यह मिथक कुछ विशिष्ट जनों ने हस्तगत कर लिया और इस आधार पर जातियाँ बन गईं । पत्थर की यदि ज़ुबान होती तो हम जान पाते कि हमारे ही गढ़े गए देवताओं के दुख क्या हैं । मैने "विश्वकर्मा " को इसी सन्दर्भ में देखा है .।. कुन्दनलाल सहगल का गाया गीत सुन रहा था एक दिन ..चन्दन का जंगला, सोने का बंगला ,विश्वकर्मा ने बनाया .. तब इस कविता ने जन्म लिया ..। आज विश्वकर्मा जयंती पर इसका प्रथम प्रकाशन कर रहा हूँ । इन पंक्तियों के अनेक ध्वन्यार्थ हैं.. ध्यान से पढ़ने के निवेदन के साथ  .-शरद कोकास


2003/400

विश्वकर्मा


सोने का बंगला चन्दन का जंगला
विश्वकर्मा ने बनाया था
कुछ बरस पहले आरज़ू साहब का यह गीत 
फिलिम प्रेसिडेंट में सहगल साहब ने गाया था

प्रजापति के मिथक में विश्वनिर्माता था विश्वकर्मा
उसकी पीठ पर बहते पसीने में बहती थी नदियाँ
पहाड़ उसके माथे पर पड़े हुए बल थे
हवाओं में पेड़ यूँ झूमते मानो उसके रोम लहराते हों
उसकी फटी बिवाईयों में कराहते मनुष्य के दुख
उसके सृजन के सुख में गूंजती संतोष की हँसी

स्वर्ग की कल्पना से पहले महज मिट्टी थी यह धरती
खौलते समुद्रों से उठकर आती थीं ज़हरीली हवाएँ
लावा उगलते थे धरती की छाती पर खड़े पर्वत
आग बरसती थी अबूझ आसमान से
जीवन के इस वैपरीत्य में भी उसने
जीने  के लिये रास्ते बनाये
पहला श्रमजीवी था वह धरती का पहला मज़दूर
अपने औज़ारों से जिसने स्वप्नों के शिल्प गढ़े
नवजात पृथ्वी की नग्न देह ढाँकने के लिये
सभ्यता की शक्ल में निर्मित किये वस्त्राभूषण

जन्मना नहीं था वह अपनी देह में
न ही देह से बाहर कहीं था उसका अस्तित्व
भविष्य का मनुष्य ढूँढ रहा था उसे पुराण कथाओं में
महल से झोपड़ी तक चप्पे-चप्पे में मौज़ूद था उसका श्रम
जिसकी महत्ता स्थापित करने के लिये वह
मनुष्य के मन में आकार ले रहा था

अद्भुत पर आस्था के उस अन्धेरे समय में
जहाँ मनुष्यों के बीच देवता बनने की जंग जारी थी
वर्ण की चौखट में बन्द कर दिया उसे मनुष्यों ने
छीन लिये उसके औज़ार बाँट लिये आपस में
उसके सृजन का सम्मान किया
और चुरा ली उससे रचने की ताकत
मन्दिरों में स्थापित कर दिया उसे
और रोली चन्दन फूलों के ढेर में छुपा दिये
उसके मेहनती हाथ

एक श्रमिक को ईश्वर बनाने का यह ऐसा षड़यंत्र था
जिसकी आड़ में अकर्मण्यता का अनिर्वचनीय सुख था
अंतत: मनुष्यों ने अपना ली उसकी कला
और उसके अविष्कारों को खुद का बताकर
अपने नाम से पेटेंट कर दिया
शिल्प के सर्वाधिकार प्राप्त किये
तय किया श्रम का बाज़ार भाव
उसके नाम पर स्थापित किये समाज और संगठन
और स्वयम्भू हो गये

घंटी, आरती और भजन के शोर में चुपचाप
जाने कब निकला वह मनुष्य की नज़रें बचाकर
समा गया कुदाल-फावड़ों ,आरी-बसूलों और छेनी-हथौड़ों में ।

                                   
                                                शरद कोकास


(छवि गूगल से साभार )
                                     



मंगलवार, सितंबर 01, 2009

यह नहीं सोचा होगा आपने गणेश जी के दर्शन करते हुए ?




गणेशोत्सव अपने चरम पर है । शोर-शराबे,पूजा-पाठ,नृत्य- गायन और उत्सवधर्मिता में डूबे जनमानस के लिये यह सोचना कठिन है कि गणेशजी की इस प्रतिमा को जिसने बनाया है वह मूर्तिकार किस हाल में जी रहा है। गणेशोत्सव की चकाचौन्ध कर देने वाली रोशनियों के बीच कवि नरेश चन्द्रकर पलट रहें हैं संस्कृति की इस पुस्तक के अनछुए पृष्ठ अपनी कविता “ संस्कृति के संवाहक “ में ।


संस्कृति के संवाहक


मूर्तियों में ढलने से पूर्व

थैला भर प्लास्टर थे गणेशजी

सरिये थे जूट के गठ्ठल थे

भरे ड्रम के गन्दले जल में निराकार पड़े थे


कौन जानता था

किस रंग आभा आकार में ढलेंगे

किनके हाथों बिकेंगे टेम्पो में चढ़ेंगे

कौन ले जायेगा उन्हे अपने पूजा पंडाल में

कितनी रेज़गारी बटोरेंगे उनके पंडाल-आयोजक

कितने भोग चढ़ेंगे

कितने में नीलाम होंगे उनके हाथ के मोदक


सब कुछ धीरे धीरे तय हुआ

आत्मकथा रची गई

प्लास्टर की थैली खुलते खुलते

ढलते सँवरते रचते चले गये

वे टाट के बने डेरे में


टाट के वे डेरे जबकि मूर्तिकारों के घर थे

आयोजकों के घर नहीं

पुरोहितों के नहीं

चन्दे की नींव पर बने पण्डाल जैसे भी नहीं

वे अन्धेरे ,मिट्टी और गन्दले जल से निर्मित थे


वे कालोनियों के सभ्रांत इलाकों से परे थे

पटरों पर बने थे

देवमूर्तियों से अँटे थे

पर फिर भी पाताल में गड़े थे


डेरों की परवाह किसे थी

उनके लिये उत्सव के दिन कहाँ थे

उनके लिये समितियाँ कहाँ थीं

उनके लिये चन्दे की रकम कहाँ थी

उनके लिये भीड़ कहाँ थी

उन पर हेलोजन लाइट कहाँ थी

वे रोशनी में नहाते कहाँ थे

वे आँखों की पुतलियों में कहाँ थे


उनकी उपमा तो ढेलों से होती थी

वे गलते थे बारिश में

धूप में खिण्ड जाते थे हवा से

सभ्य जन की परिधि सिकुड़ती थी उन तक पहुँचते हुए


डेरों के लिये चैनेल कहाँ थे

कैमरे के लेंस

पंडाल की रोशनी के बाहर आते ही तड़क जाते थे


मूर्तिकार कहाँ थे मूर्तियों के निर्माण के बाद

गणेशजी ही गणेशजी थे

वे ही थे

जैसे संस्कृति के सच्चे संवाहक !!


- नरेश चंद्रकर


सच बताईये, मूर्तियों के दर्शन करते हुए क्षण भर के लिये भी कभी आपके मन में यह खयाल आया ? अगली बार जब आप दर्शन के लिये जायें तो इन विपन्न मूर्तिकारों को याद कीजियेगा .. कवि की कविता तभी सार्थक होगी पर्व की शुभकामनाओं सहितशरद कोकास

मंगलवार, जून 30, 2009

नरेश चंद्रकर के पाँवों में चक्के लगे है


बचे घर तक पहुँचने का रास्ता,जल और युवती

नरेश चंद्रकर घुमक्कड़ किस्म के कवि हैं. गोआ,आसाम,,हैदराबाद,हिमाचल प्रदेश,जाने कहाँ कहाँ रह चुके हैं. वर्तमान में बड़दा में हैं. वे भटकते हुए भी कविता खोज लाते हैंउनके दो कविता संग्रह हैं बातचीत की उड़ती धूल में औरबहुत नर्म चादर थी जल से बुनी यह कविता उनके इस दूसरे संग्रह से. जल,स्त्री और पृक्रति के प्रति चिंता को एक जाने पहचाने बिम्ब के माध्यम से अभिव्यक्त कर रहे है नरेश चंद्रकर

जल


जल से भरी प्लास्टिक की गगरी छलकती थी बार बार


पर वह जो माथे पर सम्भाले थी उसे

न सुन्दर गुंथी वेणी थी उसकी

न घने काले केश

पर जल से भरी पूरी गगरी सम्भाले वह पृथ्वी का एक मिथक बिम्ब थी


जल से भरी पूरी गगरी सहित वह सड़क पर चलती थी


नग्न नर्म पैर

गरदन की मुलायम नसों में भार उठा सकने का हुनर साफ झलकता था

बार बार छलकते जल को नष्ट होने से बचाती

सरकारी नल से घर का दसवाँ फेरा पूरा करती वह युवती दिखी


दिखी वाहनों की भीड़ भी सड़क पर

ब्रेक की गूंजती आवाजें


बचे रहें युवती के पैर मोच लगने से

बचे रहें टकराने से वे वाहनों की गति से

बचा रहे स्वच्छ जल गगरी में


बचा रहे सूर्य के उगते रक्तिम नर्म घेरे में

उड़ते पंछी का दृश्य


बचे घर तक पहुँचने का रास्ता,जल और युवती !!