रविवार, मार्च 21, 2010

मेहनतकश जंग लड़कियों को सिखाती है इंतज़ार करना


                                                             नवरात्रि छठवाँ दिन
आपने अब तक इन्हे पढ़ा - प्रथम दिन से लेकर आपने अब तक फातिमा नावूत , विस्वावा शिम्बोर्स्का, अन्ना अख़्मातोवा .गाब्रीएला मिस्त्राल और अज़रा अब्बास की कवितायें पढ़ीं ।
आप सभी अच्छी कविता के प्रशंसक हैं  - कल प्रकाशित अज़रा अब्बास की कविता पर खुशदीप सहगल , संजय भास्कर ,जे. के. अवधिया , अरविन्द मिश्रा , गिरीश पंकज . प्रज्ञा पाण्डेय , सुशीला पुरी , शोभना चौरे , रश्मि रविजा , रश्मि प्रभा  , बबली , वाणी गीत , वन्दना , रचना दीक्षित ,सुशील कुमार छौक्कर देवेन्द्र नाथ शर्मा , गिरिजेश राव , समीर लाल , एम.वर्मा ,कुलवंत हैप्पी ,काजल कुमार ,मुनीश ,कृष्ण मुरारी प्रसाद,अपूर्व ,रावेन्द्र कुमार रवि ,हर्षिता,पंकज उपाध्याय,विनोद कुमार पाण्डेय ,अलबेला खत्री , चन्दन कुमार झा की प्रतिक्रियाएँ  प्राप्त हुई । आप सभी अच्छी कविता के प्रशंसक हैं , आप सभी के प्रति मैं कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ । सबसे अधिक प्रसन्नता मुझे युवा कवि व ब्लॉग अनुनाद के शिरीष कुमार मौर्य के आगमन से हुई उनका मै स्वागत करता हूँ और पिछले दिनों उन्हे प्राप्त लक्षमणप्रसाद मंडलोई सम्मान के लिये इस ब्लॉग के पाठकों की ओर से बधाई देता हूँ । सिद्धेश्वर जी ने फोन पर बताया कि डॉ. रूपचन्द शास्त्री “ मयंक “ भी यह कविता श्रंखला पढ़ रहे हैं , उनके प्रति भी मैं धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ । अशोक कुमार पाण्डेय व्यस्तता के चलते आज मात्र उपस्थिति ही दर्ज कर पाये इसके लिये भी धन्यवाद ।
आप आज पढ़ेंगे - आज प्रस्तुत है अरबी में लिखने वाली कवयित्री दून्या मिख़ाइल की एक महत्वपूर्ण कविताअरविन्द मिश्रा जी ने एक जिज्ञासा रखी थी सो दून्या की कविता पर कवि गीत चतुर्वेदी की यह टिप्पणी प्रस्तुत कर रहा हूँ । इस कविता का अनुवाद भी गीत ने ही किया है और यह मैने ज्ञानरंजन जी की पत्रिका “ पहल “ के अंक 83 से साभार ली है । गीत चतुर्वेदी कहते हैं “ अरबी में लिखने वाली दून्या मिख़ाइल का व्यंग्य कहता है कि आप शब्दों को , उसी अर्थ में न समझें , उन्हे इस्तेमाल करने के पीछे की सोच भी समझें । जब वह कहती है ‘हमेशा’ तो उसका मतलब पूरी तरह हमेशा नहीं होता , ऐसा तो उसने सिर्फ तुक मिलाने के लिये कहा था । जब वह चुप रहती हो तो उसे पूरी तरह चुप्पी न समझा जाये , हो सकता है उसकी आँखों के रास्ते अभी अभी बगदाद की गलियों में गुजरा उसका बचपन आया हो ।“
गीत चतुर्वेदी कहते हैं “ दून्या के यहाँ महिला होने का सियापा नहीं है । उसमें प्रेमिकाओं की तरह इंतज़ार करने की ताकत है और यह हुनर उसे  “ मेहनतकश  जंग “ ने सिखाया है । अरबी कविता जब से वयस्क हुई है उसमें गोली,धमाके, ख़ून से लथपथ चांद और एक बूढ़े पेड़ की उसांसों से निकलता तूफ़ान बेसाख़्ता आता रहा है ।  ये कवितायें उस कवयित्री ने लिखी हैं जो बहुत हड़बड़ी में थी जिसने अभी कल ही अपना देश खोया है । ये कवितायें उन लोगों को सम्बोधित हैं जो आनेवाले दिनों में अपना देश खो देंगे । क्योंकि वे सब भी बहुत हड़बड़ी में हैं । हम ऐसे समय में हैं जहाँ हर सुबह संज्ञाएँ बदल जाती हैं ,सर्वनाम वही रहते हैं पर क्रियायें बदल जाती हैं ।“
आप भी जानिये कुछ दून्या मिख़ाइल के बारे में   - दून्या की पैदाइश 1965 की है ,उनके चार संग्रह आ चुके हैं 2001 में सन्युक्त राष्ट्र का “ फ्रीडम ऑफ राइटिंग अवार्ड “ मिला है । ईराक से उसे धमकियाँ मिली हैं ,जान बचाने की फिक्र मिली , बग़दाद की गलियों में लाशें चीख पुकार मिली , अंतत: 1996 में वह अपना वतन छोड़कर अमेरिका स्थित मिशिगन में जा बसी । बग़दाद से अंग्रेज़ी मे बी.ए. किया अमेरिका की वेन स्टेट  यूनिवर्सिटी से एम.ए.किया और अब अरबी पढ़ाती हैं । “
प्रस्तुत है युद्ध और युद्ध की विभीषिकाओं को लेकर ,समय के महत्वपूर्ण सवालों से लड़ने वाली दून्या मिख़ाइल की यह कविता इसमें व्यंग्य की धार के साथ आप जंग के नये नये सन्दर्भ देख सकते हैं । हमने युद्ध की स्थितियों को ज़्यादा जिया नहीं है फिर भी हम जानते हैं, युद्ध से क्या क्या होता है भले ही राष्ट्रप्रेम की भावना के चलते बहुत सी बातों को हम अनदेखा करें । दून्या के शब्दों  में कहें तो “ ईराक में मैने युद्ध को जिया है इसलिये मुझे पता है कि युद्ध क्या होता है । “ पढ़िये बिना किसी रूपक या बिम्ब के ,सरल सरल शब्दों में लिखी युद्ध के दूसरे पक्ष पर लिखी  अंत में एक सवाल छोड़ जाने वाली एक अलग तरह की कविता । आप महसूस करेंगे इस कविता की हर पंक्ति मे एक नई कविता का विषय है |

जंग कितनी मेहनतकश है

कितनी अद्भुत होती है जंग
कितनी कर्मठ
कितनी हुनरमन्द

अलस्सुबह उठकर
वह जगाती है सायरन को
एम्बुलेंसों को रवाना करती है सब दूर
हवा में झुलाती है लाशों को
घायलों के आगे फिसलाती है स्ट्रेचर
मांओं की आँखों के लिये बुला लाती है बारिश
कितना खोदती है ज़मीन को
अपने फावड़े से
मलबे के भीतर से निकाल लाती है कितना कुछ
कुछ बेजान चमकती चीज़ें
बाक़ी मुर्दुस , फिर भी धड़कती हुई

यह बच्चों के दिमाग़ में
कई नये सवाल भरती है
आसमान में दाग़ती है मिसाइलें और आग के गोले
और ईश्वर का मनोरंजन करती है

यह खेतों में बोती है बारूदी सुरंग
उगाती है फफोले और मवाद
परिवारों से करती है आग्रह
कहीं और बसने का
और हाकिमों के साथ खड़ी रहती है
जब वे कोस रहे होते हैं शैतान को
( बेचारा शैतान ,उस वक़्त भी उसका एक हाथ
झुलस रहा होता है लपटदार आग में )
जंग दिन-रात करती रहती है अपना काम
बिना थके
यह आततायियों को लम्बे लम्बे भाषण देने को
प्रेरित करती है
सेनाध्यक्षों को देती है तमग़े
और कवियों को एक अदद विषय

यह कृत्रिम अंग बनाने वाले उद्योग को भी
सहारा देती है
मक्खियों और कीड़े- मकोड़ों के लिये जुटाती है भोजन
इतिहास की किताबों में जोड़ती पन्ने
मारे गये और हत्यारे के बीच समानता स्थापित करती है

प्रेमियों को सिखाती पत्र लिखना
लड़कियों को सिखाती है इंतज़ार करना
अख़बारों को देती है ख़बरें-तस्वीरें
अनाथों के लिये बनाती है नए-नए मकान
ताबूत बनाने वालों को व्यस्तता देती है
थपथपाती है क़ब्र खोदने वालों की पीठ
और नेता के चेहरे पर एक मुस्कान रंगती है

कितनी मेहनतकश  होती है जंग
इतनी बेमिसाल है फिर भी
कोई इसे सराहता क्यों नहीं

                        - दून्या मिख़ाइल 

            मित्रों, आज यह सवाल नहीं पूछूंगा कि प्रतिदिन कविता दूँ या न दूँ । कई मित्रों ने फोन पर इस बात के लिये लताड़ा है । आप सभी लोगों के उत्साह को देखते हुए इस विचार के लिये शर्मिन्दा हूँ ..और फिर संकल्प तो संकल्प ही होता है ना , जैसे आपका वैसे मेरा । बहरहाल..नाज़ी फायरिंग स्क्वाड द्वारा जिसे गोली से उड़वा दिया वह ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का , डेनमार्क की शीमा कालबासी और अन्य कवयित्रियों की  कविताओं के साथ अगले दिनों में आपकी प्रतीक्षा रहेगी  – आपका शरद कोकास  
(चित्र गूगल से साभार ) 
 

 




                                                    




26 टिप्‍पणियां:

  1. अलस्सुबह उठकर
    वह जगाती है सायरन को
    एम्बुलेंसों को रवाना करती है सब दूर
    हवा में झुलाती है लाशों को

    बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . ...गहरे भाव.

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  2. यह कृत्रिम अंग बनाने वाले उद्योग को भी
    सहारा देती है
    मक्खियों और कीड़े- मकोड़ों के लिये जुटाती है भोजन
    इतिहास की किताबों में जोड़ती पन्ने
    मारे गये और हत्यारे के बीच समानता स्थापित करती है



    खासकर इन पंक्तियों ने रचना को एक अलग ही ऊँचाइयों पर पहुंचा दिया है शब्द नहीं हैं इनकी तारीफ के लिए मेरे पास...बहुत सुन्दर..

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  3. netayon ke chehre per muskan dene-wali jang kya sachmuch ishwar ka manoranjan karti hai? Kai sawal khade karti hai yah kavita!

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  4. विश्व साहित्य की ऐसी अनुपम धरोहर से परिचित कराने के लिये साधुवाद

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  5. उफ़ .....उफ़ .....उफ़ !!!!!! जंग के जरिये व्यंग ? कितना मार्मिक और कितना दारुण ....युद्ध क्या जीवित छोडते हैं हमें ?

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  6. और ईश्वर का मनोरंजन करती है .. .shayad HAAN ..:(

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  7. आप कविता जरूर दें....
    कविता दिल से निकलती है....

    दिमाग भले झूठ हो जाए...दिल झूठ नहीं बोलता है....

    मैंने भी कल दिल की आवाज पर एक कविता के माध्यम से गौरैया को आने से मना कर दिया है....काफी लोग उसे बुला भी रहें हैं...देखते हैं.. वो मेरी बात मानती है..या औरों की....?
    .......................
    ....विश्व गौरैया दिवस-- गौरैया...तुम मत आना.(कविता)
    http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_20.html

    लड्डू बोलता है...इंजीनियर के दिल से....

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  8. गीत चतुर्वेदी जी की टिप्पणी ने कविता की पृष्ठभूमि को अच्छी तरह समझा दिया ...

    जंग के साए में ऐसी कवितायेँ रच जाती हैं ...मन अजीब सी वितृष्णा से भर गया है ..

    .इसलिए मुझे प्रेम कवितायेँ ही ज्यादा पसंद आती हैं ...मगर शायद यह वास्तविकता से पलायन भी है ...!!

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  9. जंग पर इतनी मार्मिक रचना वही लिख सकता /सकती है, जिसने जंग को करीब से देखा हो । कितना यथार्थ और जंग का विभत्स्य रूप दर्शाया है इस रचना में ।
    इस प्रस्तुति के लिए बधाई और आभार।
    परिस्थितियोंवश व्यस्त रहते पहले नहीं आ पाया।

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  10. युद्ध की विभीषिका कितना तांडव कर सकती है उसका कितना सटीक चित्रण किया है दूना ने. बहुत बहुत आभार.

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  11. शरद जी, आज की कविता बहुत मार्मिक है.दून्या ने सच ये सब बहुत करीब से देखा,बहुत कुछ सहा है.युद्ध की विभीषिका का जैसे सचित्र वर्णन हो सब कुछ आँखों के आगे से गुजर गया.

    कितनी मेहनतकश होती है जंग
    इतनी बेमिसाल है फिर भी
    कोई इसे सराहता क्यों नहीं

    काश ऐसे मेहनतकश क्रिया कलाप की सराहना करने वाला इस सम्पूर्ण विश्व में कोई न हो !

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  12. प्रेरणाप्रद है,कृपया जारी रखें,धन्यवाद।

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  13. मेरी लम्बी कविता 'नरक के रस्ते' पर श्रीश ने टिप्पणी की थी - "क्या इतना यथार्थ कविता झेल पायेगी..?"
    आज कह रहा हूँ - हाँ, झेल सकती है। धारण कर सकती है।

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  14. कितनी मेहनतकश होती है जंग!!
    जंग के प्रति गहरी वितृष्णा के बाद असहाय कर देने वाले भाव मन को छील रहें हैं यथार्थ- चित्रण किया है दूना ने.. अदभुत अभिव्यक्ति है .

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  15. विदेशी नवदुर्गाओं के गीतों की अनुवाद श्रंखला में
    यह अनुवाद बहुत ही बढ़िया है!

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  16. यहाँ एक से बढ़कर एक कविताएँ पढ़ने को मिल रही हैं!
    --
    इस कविता की हर पंक्ति मे
    एक नई कविता का विषय है,
    पर मुझे यह भी लगता है कि
    इसका सारांश हो सकती हैं
    ये दो पंक्तियाँ -
    कोई क्यों नहीं सराहता जंग को,
    जबकि होते हैं इसके फ़ायदे भी बहुत!

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  17. अलस्सुबह उठकर
    वह जगाती है सायरन को
    एम्बुलेंसों को रवाना करती है सब दूर
    हवा में झुलाती है लाशों को
    घायलों के आगे फिसलाती है स्ट्रेचर
    मांओं की आँखों के लिये बुला लाती है बारिश
    कितना खोदती है ज़मीन को
    अपने फावड़े से
    मलबे के भीतर से निकाल लाती है कितना कुछ

    अद्भुत ......!!

    जंग जैसे मौजूअ पर शायद ही किसी ने ऐसी रचना लिखी हो ......!!

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  18. बेहतरीन प्रस्तुति..एक से बढ़कर एक..बधाई !!

    __________________
    ''शब्द-सृजन की ओर" पर- गौरैया कहाँ से आयेगी

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  19. देर से आने पर टिप्पणियों के साथ कविता पढ़ना ज्यादा सुकून भरा होता है मेरे लिए !
    पर, देरी जानबूझ कर नहीं हुई !
    इन कविताओं को पढ़ना विशिष्ट अनुभव है । आभार ।

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  20. बस रावेन्द्र जी के लिये कहना है कि हुज़ूर इस कविता का सारांश बस यही हो सकता है कि 'कोई कैसे सराह सकता है युद्ध को/ जिसके होते हैं सिर्फ़ नुक्सान…'

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  21. कोई कैसे सराह सकता है युद्ध को,
    जिससे होते हैं सिर्फ़ नुकसान?

    --
    आपका कहना बिल्कुल सही है, अशोक भाई!

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