सोमवार, मार्च 22, 2010

वे नहीं सूंघ सकतीं बेकरी की डबलरोटी


नवरात्रि पर्व : सातवाँ दिन
अब तक जिनकी कवितायें आपने पढ़ीं : फातिमा नावूत , विस्वावा शिम्बोर्स्का, अन्ना अख़्मातोवा .गाब्रीएला मिस्त्राल ,अज़रा अब्बास , और दून्या मिख़ाइल कवितायें पढ़ीं ।
अब तक जिन्होने अपनी उपस्थिति दर्ज की: लवली कुमारी ,हरि शर्मा ,पारुल ,राज भाटिया , सुमन , डॉ.टी.एस.दराल , हर्षिता, प्रज्ञा पाण्डेय ,मयंक , हरकीरत “हीर” , के.के.यादव , खुशदीप सहगल , संजय भास्कर ,जे. के. अवधिया , अरविन्द मिश्रा , गिरीश पंकज ., सुशीला पुरी , शोभना चौरे , रश्मि रविजा , रश्मि प्रभा  , बबली , वाणी गीत , वन्दना , रचना दीक्षित ,सुशील कुमार छौक्कर देवेन्द्र नाथ शर्मा , गिरिजेश राव , समीर लाल , एम.वर्मा ,कुलवंत हैप्पी ,काजल कुमार ,मुनीश ,कृष्ण मुरारी प्रसाद,अपूर्व ,रावेन्द्र कुमार रवि, पंकज उपाध्याय,विनोद कुमार पाण्डेय ,अलबेला खत्री , चन्दन कुमार झा , डॉ.रूपचन्द शास्त्री “ मयंक “,
अब आप पढ़ेंगे : ईरान डेनमार्क मूल की कवयित्री शीमा काल्बासी की कविता जिसका अनुवाद किया है श्री अशोक पाण्डेय ने और इसे मैने साभार ज्ञानरंजन जी की पत्रिका पहल के अंक 87 से लिया है ।
अब शीमा काल्बासी का परिचय भी जान लीजिये :    शीमा काल्बासी चार भाषाओं में लिखती है । उनकी पहली कविता आठ वर्ष की उम्र में छपी थी । डेनिश स्कूल ऑफ नर्सिंग एण्ड रेडियोग्राफी से नर्सिंग का डिप्लोमा ले चुकी शीमा ने U N H C R और C R M के लिये दुभाषिये का काम किया है । साथ ही वे संयुक्त राष्ट्र संघ के अनेक पुनर्वास तथा आपदा प्रबन्धन कार्यक्रमों में शिरकत कर चुकी हैं और अनेक देशों में रह चुकी हैं । फिलहाल वे अपने पति और बच्चों के साथ अमेरिका में रहती हैं । वीमेन इन वार उनकी रचनाओं का ताज़ा संग्रह है । प्रस्तुत है उनकी चर्चित कविता “ अफगानिस्तान की स्त्रियों के लिये “ से यह अंश । कल आपने दून्या मिख़ाइल की युद्ध पर एक कविता पढ़ी थी जिसका स्वर व्यंग्य का था , आज अफगानिस्तान पर अमेरिका के हमले के सन्दर्भ में शीमा की कविता पढ़िये जिसमें कहीं कोई राजनीतिक बयान नहीं है लेकिन स्त्री की स्थिति के बहाने सब कुछ कह दिया गया है । 
अफगानिस्तान की स्त्रियों के लिये

मैं टहल रही हूँ काबुल की गलियों में
रंगी हुई खिड़कियों के पीछे
टूटे हुए दिल और टूटी हुई स्त्रियाँ हैं

जब उनके परिवारों में कोई पुरुष नहीं बचता
रोटी के लिये याचना करतीं वे भूख से मर जाती हैं
एक ज़माने की अध्यापिकायें ,चिकित्सिकायें और प्रोफेसर
आज बन चुकी चलते फिरते मकान भर

चन्द्रमा का स्वाद लिये बगैर
वे साथ लेकर चलती हैं अपने शरीर ,कफ़न सरीखे बुर्कों में
वे कतारों के पीछे धरे पत्थर हैं
उनकी आवाज़ों को उनके सूखे हुए मुंहों से बाहर आने की इज़ाज़त नहीं
तितलियों जैसे उड़ती हुई अफ़गान स्त्रियों के पास लेकिन कोई रंग नहीं
क्योंकि खून सनी सड़क के अलावा वे कुछ नहीं देखतीं

रंगी हुई अपनी खिड़कियों के पीछे से
वे नहीं सूंघ सकतीं बेकरी की डबलरोटी
क्योंकि उनके बेटों की उघड़ी हुई देहें सारी गन्धों को ढँक लेती हैं
और उनके कान कुछ नहीं सुनते
क्योंकि वे सिर्फ उनके भूखे पेट को सुनती हैं
गोलीबारी और आतंक की हर आवाज़ के साथ
अनसुनी कराहों और उनके रूदन के साथ ।
कड़वाहट के साथ चुप करा दी गई शांति एक उपाय है
अफ़गान स्त्री के  जीवन के रक्तपात के लिये ,
बाहर न आती हुई भिंची हुई आवाज़ें टूटती जाती हैं
उनके जीवन के त्रासद अंत में ।

                                    शीमा काल्बासी
    

 

23 टिप्‍पणियां:

  1. शीमा कल्बासी का यह कविता दून्या की पिछली पोस्ट में प्रस्तुत कविता का अभिधात्मक विस्तार है। उस कविता मे व्यंजना के ज़रिये युद्ध की जिस भयावहता को चित्रित किया गया था अगर उसकी तुलना एक पेंटिंग से की जा सकती है तो इसको युद्ध की रिपोर्टिंग कर रहे किसी शानदार और संवेदनशील फोटोग्राफर के फोटोग्राफ से की जा सकती है। जैसे एलन मार्गन ने अपनी किताब में उद्विकास का नारीवादी पाठ दिया था वैसे ही यह कविता युद्ध का नारीवादी पाठ प्रस्तुत करती है। और इस रूप में वह इतनी स्पष्ट है कि उसे समझने/समझाने के लिये किसी विशेष आलोचकीय समझ की नहीं बस एक संवेदनशील दृष्टि की आवश्यकता है। विनाश का यह पितृसत्तात्मक हथियार कैसे औरत और पूरे समाज के आज और कल के सपनों और सच्चाईयों को नष्ट कर देता है…शीमा इसे बेहद मज़बूती से दर्ज़ कराती हैं।

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  2. वे नहीं सूंघ सकतीं बेकरी की डबलरोटी
    क्योंकि उनके बेटों की उघड़ी हुई देहें सारी गन्धों को ढँक लेती हैं
    और उनके कान कुछ नहीं सुनते
    क्योंकि वे सिर्फ उनके भूखे पेट को सुनती हैं
    शरद जी,बेहद मार्मिक और दारुण है ये कविता. दर्द को जैसे कुरेद कर रख दिया है .ये युद्ध की विभीषिका और उसके बाद का त्रासदी भरा जीवन.उफ़ उफ्फ्फ ..... वैसे भी क्या कम दुःख लिखे हैं नारी जीवन में. वो भी वहां जहाँ इतनी रूढ़िवादिता हो पर यहाँ इस कविता में तो जैसे पराकाष्टा ही हो गयी ...........

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  3. कबीले तारीफ़.....आप नयी चीजें ला रहें हैं.....
    ........
    ...........
    विश्व जल दिवस....नंगा नहायेगा क्या...और निचोड़ेगा क्या ?
    लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से..
    http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html

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  4. एक अच्छे रिपोर्ताज-जैसी ही है
    यह कविता!

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  5. एक सत्य आप ने अपनी इस कविता मै उतार दिया है.
    धन्यवाद

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  6. युद्ध की भीषण त्रासदी का ऐसा मार्मिक चित्रण किया है कवियत्री ने कि पढ़कर सारे भयावह दृश्य एक एक कर आँखों के सामने से गुजरने लगते हैं.
    .हाल ही में एक रिपोर्ट पढ़ी थी..कश्मीर के एक विधवाओं के शहर पर .....इस कविता के साथ साथ जैसे उन सूनी आँखों का दर्द भी...जीवंत हो उठा..

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  7. अशोक जी ने सही कहा, इन कविताओं को समझने के लिए किसी आलोचकीय समझ की नहीं, संवेदनशील दृष्टि की आवश्यकता है !
    बेधती हुई पंक्ति है इस कविता में -
    "कड़वाहट के साथ चुप करा दी गई शांति एक उपाय है
    अफ़गान स्त्री के जीवन के रक्तपात के लिये" ....
    आभार प्रस्तुति के लिए !

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  8. कबीले तारीफ़.....आप नयी चीजें ला रहें हैं.....

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  9. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  10. जन्म व्यर्थता को पायेगा तो जन्मदा भी टूटेगी , अतः यह
    सच है '' टूटे हुए दिल और टूटी हुई स्त्रियाँ '' ..
    प्रस्तुति के लिए आभार !

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  11. इस कविता का हर अल्फाज़ युद्ध और स्त्री का बिम्ब रच रहा है .रंगी हुई खिडकियों के भी कई अर्थ है बेटे की उघडी देह की महक और उनके भूके पेट की आवाजें .कविता की हर पंक्ति में ..स्त्री जितनी कोमल उतनी ही पाषाण सी भी साबित है . बयान से जो बाहर हों कवयित्री ने उस दर्द शब्द दिए हैं . ..उखाड़े नाखूनों का दर्द संभालना मुश्किल हों रहा है !प्रस्तुति के लिए आभार !

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  12. युद्ध की भीषण त्रासदी का ऐसा मार्मिक चित्रण और कहाँ देखने को मिलेगा ?कल का खुशहाल अफगानिस्तान आज शमशान बन गया है!अमेरिका में रहने वाली कवियत्री से ऐसा वर्णन सुनना विस्मित करता है!!बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  13. अफगानिस्तान की लाचार महिलाओं का मार्मिक चित्रण किया है कवियत्री ने ।
    इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार।

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  14. ''चंद्रमा का स्वाद लिये बगैर ,वे साथ लेकर चलती हैं अपने शरीर ,कफन सरीखे बुर्के मे .......'' अफगान की स्त्री का संदर्भ होते हुये भी यहाँ समूची औरत जात की बात हो रही है और 'अबला जीवन'का तीखा यथार्थ चेतना को लहूलुहान कर रहा है ...,आवाजों के टूटने का विम्ब अद्भुत है ....लाचारी अपने सारे लिबासों के साथ उपस्थित है. यहाँ हम भूल जाते हैं कि जिस समाज मे हम रह रहे होते हैं और वहाँ ''समाज '' की कोई स्थूल इकाई न होकर पुरुष और स्त्री दोनों के सहभाग का नाम ही समाज है और जब स्त्री की इतनी दारुण दशा होगी तो क्या समाज का विकाश हो पाएगा ? कवियित्री शीमा कलबासी की कलम को नमन .

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  15. यह तो यथार्थ है ही युद्ध का सबसे अधिक नुकसान स्त्रियों को ही उठाना पड़ता है...असुरक्षा सर चढ़ कर तांडव करती है.
    कविता पसंद आई ..पिछली वाली भी अच्छी लगी थी. यहाँ देने का धन्यवाद.

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  16. यह दुनियाँ कितनी बड़ी है ! दुखों से भरी दुनियाँ...दर्द के महासागर..
    शुक्र है कि इस दर्द भरी दुनियाँ में संवेदना से भरे ह्रदय भी हैं और अभिव्यक्ति के लिए इतने सशक्त कलमकार.
    ..आभार.

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  17. रंगी हुई अपनी खिड़कियों के पीछे सेवे नहीं सूंघ सकतीं बेकरी की डबलरोटी
    क्योंकि उनके बेटों की उघड़ी हुई देहें सारी गन्धों को ढँक लेती हैं
    शीमा काल्बासी की यह रचना अत्यंत मार्मिक ही नहीं बल्कि उस तंज और धार को लिये हुए है जो रचना को एक आयाम देती है.
    चलचित्र सा चित्र चलता है
    साधुवाद इस तरह की रचनाओं से रूबरू करवाने के आपके इस सार्थक प्रयास को.

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  18. बहुत अच्छा! कितना आत्मीय और अनोखा तरीका है आपका विमर्श के धरातल पर उतरने का। बहुत प्रभावित हूं।

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  19. nari jeevan ke aur sthayi dukh ki vedna ko prkt karti svevan sheel kavita .
    abhar

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  20. एक ज़माने की अध्यापिकायें ,चिकित्सिकायें और प्रोफेसर
    आज बन चुकी चलते फिरते मकान भर
    युद्ध और उसकी विभीषिका से उपजे दर्द का मार्मिक दस्तावेज़ है शीमा की ये कविता. आपदा प्रबन्धन से जुड़े होने के कारण उन्होंने बहुत करीब से देखा-महसूस किया है ये दर्द. आभार.

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  21. कबाइली समाज और कट्टरता का संग विश्व के इस भाग की नियति रहे हैं। ऐसे में नारी नरक में ही रहती है।
    ..मुझे नीली आँखों वाली एक अफगानी युवती का नेशनल जियोग्रॉफिक का चित्र याद आ गया। कई वर्षों के बाद, जब वह बाल बच्चों वाली हो चुकी थी, उसे ढूढ़ कर दुबारा उसका चित्र उन लोगों ने छापा था। दोनों चित्रों के साम्य और कंट्रास्ट त्रासदी को बयाँ करते हैं। दूसरी बार बुरका उठा कर चित्र लेने के लिए जो मसक्कत करनी पड़ी उसका वर्णन ही बहुत कुछ बता देता है।

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