रविवार, नवंबर 22, 2009

हम सभी खानाबदोश है...


            हम में से ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी जड़ों से उखड़कर  नई जगहों पर जमने की कोशिश कर रहे हैं ..। खानाबदोशों की तरह हमारे पूर्वज जाने कहाँ से भटकते हुए आये और कहीं किसी जगह पर स्थायी हो गये । फिर उस पीढ़ी से कुछ लोग निकले रोजी-रोटी की तलाश में और नई जगह स्थापित हो गये । फिर अगली पीढ़ी में भी ऐसा ही हुआ । यह सिलसिला अभी भी चल रहा है और जाने कब तक चलता रहेगा !
             मेरे परदादा स्व. विश्वेश्वर प्रसाद रायबरेली ज़िले के एक गाँव लाऊपाठक का पुरवा से निकले और फतेहपुर आ गये ,तीस वर्ष वहाँ रहने के बाद सन 1900 के आसपास मध्यप्रांत में  बैतूल  आ गये जहाँ उनके पाँच पुत्र हुए  बाबूलाल बृजलाल,कुन्दनलाल,सुन्दरलाल व चन्दनलाल । फिर मेरे पिता श्री जगमोहन रोजी –रोटी के लिये बैतूल से निकले और महाराष्ट्र के भंडारा नामक स्थान पर आ गये । वीरेन्द्र चाचा मुम्बई में, रमेश चाचा नागपुर में और मनोहर चाचा भिलाई आ गये । और मै अपना घर छोड़कर निकला तो छत्तीसगढ़ के इस शहर दुर्ग में आ गया । मेरे और भी कई दादाओं,चाचाओं और भाइयों की यही कहानी है ।
            हम में से बहुत से लोग हैं जो विस्थापन का यह दर्द भोग रहे हैं । इस देश के हर शहर में ऐसे लोग हैं जिनकी जड़े कहीं और थी और वे अब नई जगहों पर जमने की कोशिश कर रहे हैं । हाँलाकि समय के साथ वे उस नई जगह की संस्कृति में रच-बस गये हैं लेकिन उनके मन की व्यथा कौन समझ सकता है ..उस स्थिति में तो और भी नहीं जब 3-4 पीढ़ियाँ गुजर जाने के बाद भी उन्हे बाहरी समझा जाता है ।उन्हे बार- बार यह अहसास दिलाया जाता है कि उनके कारण स्थानीय लोगों की उपेक्षा हो रही है । उनका अपमान किया जाता है । और ऐसा कहने वाले यह भी नहीं सोचते कि बरसों पहले उनके पूर्वज भी कहीं बाहर से ही आये होंगे ।
            हर साल देखता हूँ मैं .. छत्तीसगढ़ से न जाने कितने मजदूर रेल में बैठकर खाने-कमाने देश के सुदूर हिस्सों में जाते हैं । उनमें से कितने ही होते हैं जो फिर कभी लौटकर नहीं आते । रेल से यात्रा करते हुए जब भी मैं खिड़की से बाहर झाँकता हूँ तो उन हरे-भरे पेड़ों की ओर देखता हूँ जिनके बीज जाने कहाँ से आये होंगे और अब जो इस मिट्टी में स्थायी हो गये हैं ..। अब यही ज़मीन उनका घर है । फिर यह खयाल भी आता है कि यदि इन्हे इस जगह से उखाड़ कर कहीं और लगा दिया जाये तो क्या वे फिर पनप सकेंगे ? क्या उन्हे उनकी जड़ों से उखाड़ने का यह खेल उन्हे जीवन दे सकेगा ? क्या उन्हे हम वही सब कुछ दे सकेंगे ? वे डूब से विस्थापित हुए लोग हों ,चाहे आतंक से ,चाहे नये कारखाने बसाने के नाम पर उन्हे हटाया जा रहा हो ,चाहे रोजी-रोटी की मजबूरी से वे घर छोड़ रहे हों ..यह सवाल तो उन सभी के लिये है । इसी प्रश्न पर सोचते हुए 15 वर्ष पूर्व इस कविता ने जन्म लिया था ।
              
                                     लोहे का घर-तीन

किसी पौधे को
जड़ से उखाड़कर
कहीं और रोपने से
और उम्मीद मात्र से
क्या वह बन सकेगा
एक छायादार वृक्ष...?


क्या उसे दे सकेंगे हम
वही मिट्टी वही जल
वही धूप धरती और आकाश
क्या उसे हासिल होंगे
दुलारने वाले वही हाथ
और बच्चों और चिड़ियों की
वही चहचहाहट

क्या उसे हम बचा सकेंगे
दीमक ,कीट-पतंगों से
कुल्हाड़ियों से और
विकास के बुलडोज़रों से

लोहे के इस घर में बैठकर
सुरक्षित यात्रा करते हुए
मैं अक्सर सोचता हूँ...

खिड़की से दिखाई देते पेड़
कभी नहीं जान सकते
उखड़े पौधों का दर्द ।

                  -- शरद कोकास   (चित्र गूगल से साभार )
                                                                                           



40 टिप्‍पणियां:

  1. जितनी सुन्दर सोच उतनी ही सुन्दर प्रस्तुति और कविता...धन्य महसूस करता हूँ अपने आप को..
    जय हिंद...

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  2. भावपूर्ण ! वैसे तो हम अफ्रीका से चले थे कभी ....

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  3. खिड़की से दिखाई देते पेड़
    कभी नहीं जान सकते
    उखड़े पौधों का दर्द ।
    कितना सच ! हमारी कहानी भी कुछ आप ही की तरह की है ।

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  4. हाँ; यकीनन..हम सभी खानाबदोश हैं..यह भी शायद आदम प्रवृत्ति है..

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  5. किसी पौधे को
    जड़ से उखाड़कर
    कहीं और रोपने से
    और उम्मीद मात्र से
    क्या वह बन सकेगा
    एक छायादार वृक्ष...?

    शरदजी..नारियां तो ये कमाल बखूबी दिखाती है..कही होती हैं उनकी जड़ें..और छायादार वृक्ष बनकर लाभ कही और पहुँचाती है.. !!

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  6. खिड़की से दिखाई देते पेड़
    कभी नहीं जान सकते
    उखड़े पौधों का दर्द ।


    गहरी भावाभिव्यक्तियॉ

    बी एस पाबला

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  7. पलायन दवा से ज़्यादा दर्द है...बड़े अच्छे ढ़ंग से समझाया शरद भाई...

    जय हिंद...

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  8. सुबह-सुबह ये पोस्ट पढ़ी। कविता पढ़ी। ऊपर के फोटो देखे। सब कुछ बहुत अच्छा लगा। सुन्दर।

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  9. आप अपनी कविताओं में संबंधित मुद्दों के वास्‍तविक दर्द को उकेर देते हैं .. लडकियों की तो वर्षों तक दूसरे क्षेत्र को अपना मानकर इस दर्द से गुजरते रहने की नियति ही होती है .. कभी कभी पूरे परिवार को अपना गांव छोडकर कहीं दूसरी जगह बसने को मजबूर होना पडता है .. पर समय के साथ सब इस दर्द को भूलने की पूरी कोशिश करते हैं .. फिर भी 3-4 पीढ़ियाँ गुजर जाने के बाद भी उन्हे बाहरी कहा जाना सचमुच दर्द की पराकाष्‍ठा से गुजरने को मजबूर कर देता है !!

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  10. प्र्तार्पण हमेशा दुखदाई ही होता है कोकाश शहाब, मगर मजबूरी ? सुन्दर रचना !

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  11. हम सबके दर्द को शब्द दे दिए हैं आपने....बिलकुल नए परिवेश में समाहित होने की कोशिश में क्या क्या छूट जाता है,यह सिर्फ भुक्तभोगी ही महसूस कर सकता है....और उस पर से नया परवेश अपनाने को तैयार नहीं...अपनी पहचान को कस कर पकडे रखना और नयी पहचान को भी आत्मसात करने की जद्दोजहद में ही सारी उम्र गुजर जाती है....कविता बहुत अच्छी है,यथार्थपरक

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  12. कोकास जी !
    इस थीम पर पहली कविता पढ़
    रहा हूँ { इस बात को मैं अपनी ज्ञान
    की सीमा के साथ कह रहा हूँ } | आज
    पुरखों के नास्ताल्जिया को सोचा तो
    मेरा नास्ताल्जिया औंधे मुंह गिर गया ...
    हार्दिक आभार ... ...

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  13. यह बात मेने बहुत पहले सोची थी जब हम रोहतक मै आये तो लोग दबाने की सोचते थे, उस से पहले आगरा रहे कोई मकान नही देता था, यह दर्द हम सब का है, लेकिन फ़िर हमे अच्छे लोग मिल जाते है ओर हम अपना दर्द भुल जाते है. बहुत सुंदर लेख लिखा आप ने. धन्यवाद

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  14. वक्त के थपेडे जडो से उखाड कर जगह जगह पहुचा देते हए . यह परागण ही है . जमीन अच्छी मिल गई तो जम गये नही मिली तो किस्मत मे था .

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  15. शरद भाई आंसू आ गये , अन्दर कहीं दुखती रग पर हाथ रख दिया आपने ! हर बार पितरों की भूमि से उखड/ उजड़ कर सुदूर बस जाना ! शायद यही नियति / जीवन है !
    फिर भी हम घर बनाते हैं ? आपने लिखा था ?....... जड़ों को जमीं से टिकाये रखने की आस ?

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  16. कितने रूप हैं विस्थापन के.....
    संयोग कि सप्ताह भर से यही सब मेरे मन मे घुमड़ रहा था!
    यहाँ हमारे पहाड़ो मे कुछ खाना बदोश जातियाँ हैं ,(बल्कि आठ दस पीढ़ी पहले मेरे पूर्वज भी घूमंतू पशुपालक ही थे.) इन्हे हिम पात के कारण हर वर्ष नीचे तराईयों की ओर भागना पड़्ता है. लेकिन इन लोगों ने विस्थापन को स्वीकार कर लिया है. दर असल शरद भाई, जितनी गहरी जड़ें, जितना गहरा उन से जुड़ाव, उतनी ही सघन वो पीड़ा उखड़ने की. सदियों पुराना उन का दर्द आज तक पहुँचते पहुँचते गीत बन जा रही है... कुछ पंक्तियाँ देखिए, अभी कच्ची हैं-

    पहाड़ी खाना बदोशों का गीत

    ....................
    विदा ओ खामोश बूढ़े सराय
    ठसाठ्स कविताओं से भर दिए हमने
    तेरे बटुए
    लबालब गीतों से भर दिए हमने
    तेरी केतलियाँ
    अब तो भोर होने ही वाली है
    आज हम पहाड़ लाँघेगे
    उस पार की चहल पहल सुनेंगे
    ....................

    सोई रहो
    ओ बरफ मे दुबकी कमज़ोर नदियो
    गये मौसम तुम्हे घूँट घूँट पिया है
    बदले मे कुछ नही दिया है
    हमारी देहों मे तैरती है
    तुम्हारी नमी
    तुम्हारी लहरें हह्राती हैं
    हमारे पाँवों में
    उतर आया है सूरज आधी ढलान तक
    आज हम पहाड़ लाँघेगे
    उस पार की धूप तापेंगे
    ................
    विदा ओ ब्यूँस की टहनियो
    हमारी आँखों में लहराते स्वप्न हैं
    तुम्हारे हरेपन के
    हमारे हाथों में कड़क लाठियाँ हैं
    तुम्हारे भरोसे की
    तुम अपनी झरती पत्तियो के आँचल में
    सहेज कर रखना यह कोमल धरती
    और ये नन्हे बीज
    अगले बसंत में हम फिर लौटेंगे.
    .....................
    कविता पूरी कर के फिर से पोस्ट करूँगा. अपने ब्लॉग पे

    http://www.ajeyklg.blogspot.com/

    सादर.

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  17. भाई शरद जी आपने देश में नए सिरे से उभरते क्षेत्रवाद और भाषावाद को जिस तरह प्रतिबिंबित करने का काम किया है उससे नफरत की इस नई फसल से अपनी रोटी सेंकने वालों को मुंह की खानी पड़ेगी। आपका यह लेख अखबारों में प्रकाशित किया जाना चाहिए। देश को एकजुट करने के लिए इस लेख के चश्मे से भारत को देखना जरूरी है। आपको विशेष बधाई। नन्हे पंखों को याद करने के लिए भी मैं आपका आभारी हूं।

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  18. शरद जी, बोटनी में पढ़ा था की प्रत्यारोपण से पोधों की स्पीसीज और मज़बूत बनती है। तभी तो पहले पोध लगायी जाती हैं , फ़िर उन्हें कहीं और मिटटी में लगा दिया जाता है। प्लांट नर्सरीज में भी यही होता है।
    वाणी जी ने बड़ी सही बात कही है। फ़िर उन्नति के लिए , कुछ तो सहन करना ही पड़ता है। वरना हम में से बहुत से साथी आज किसी गाँव में पड़े खाली ताश खेल रहे होते।

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  19. खिड़की से दिखाई देते पेड़
    कभी नहीं जान सकते
    उखड़े पौधों का दर्द ।
    कितनी सुन्दर रचना!!! सच है कहां से आये कहां पहुंच गये..........खानाबदोश ही तो हैं हम.

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  20. खानाबदोश तो हम हैं। सच पूछिए तो यही जीवन भी है। कैसे अफ्रीका से चल कर पूरी दुनिया नाप दी है मनुष्य ने और अब तो धरती से आगे अंतरिक्ष में बसने की तैयारी है।

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  21. लोहे के इस घर में बैठकर

    सुरक्षित यात्रा करते हुए

    मैं अक्सर सोचता हूँ...



    खिड़की से दिखाई देते पेड़

    कभी नहीं जान सकते

    उखड़े पौधों का दर्द ।


    बहुत समय लगता है फिर से जडें पकड़ने में ....पर आपने अपनी संवेदनशीलता बखूबी निभाई ......!!

    जवाब देंहटाएं
  22. लोहे के इस घर में बैठकर

    सुरक्षित यात्रा करते हुए

    मैं अक्सर सोचता हूँ...



    खिड़की से दिखाई देते पेड़

    कभी नहीं जान सकते

    उखड़े पौधों का दर्द ।


    बहुत समय लगता है फिर से जडें पकड़ने में ....पर आपने अपनी संवेदनशीलता बखूबी निभाई ......!!

    जवाब देंहटाएं
  23. लोहे के इस घर में बैठकर

    सुरक्षित यात्रा करते हुए

    मैं अक्सर सोचता हूँ...



    खिड़की से दिखाई देते पेड़

    कभी नहीं जान सकते

    उखड़े पौधों का दर्द ।


    बहुत समय लगता है फिर से जडें पकड़ने में ....पर आपने अपनी संवेदनशीलता बखूबी निभाई ......!!

    जवाब देंहटाएं
  24. किसी पौधे को
    जड़ से उखाड़कर
    कहीं और रोपने से
    और उम्मीद मात्र से
    क्या वह बन सकेगा
    एक छायादार वृक्ष...?
    aapke is lekh me kitni pidhiyon ki peeda hai jo sthai hokar bhi asthai hai ,sabse aham ye baat honi chahiye ki hum manu ki santan hai ,kahte hai jiska dana-pani jahan ka likha hota hai ,kismat use wahi khinch laati hai ,ye hamare haath nahi ,is lekh se ek geet yaad aa gaya -chal ud jaa re panchhi.......

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  25. क्या उसे दे सकेंगे हम
    वही मिट्टी वही जल
    वही धूप धरती और आकाश
    क्या उसे हासिल होंगे
    दुलारने वाले वही हाथ
    और बच्चों और चिड़ियों की
    वही चहचहाहट

    हर शब्‍द जाने कितनों हरे-भरे पेड़ों के उखाड़े जाने का दर्द लिये इस रचना में समाहित हो गया है ।

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  26. विस्थापित होने का दर्द कैसा..........पूरा भारत हमारा है..........!
    एक टीस तो मगर होती ही है अपने जड़ों से कट जाने पर..!!

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  27. बहुत ही सुंदर शब्दों का प्रयोग करके आपने उम्दा रचना लिखा है जो काबिले तारीफ है ! बहुत खूब!

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  28. कविता कठिन है फिर भी यह पेज 1452बार पढ़ा गया...

    kavita kathin hai isliye hi ye page 1452 baar padha gaya :)

    kavita ke kisi ek baahg ki taarif nahi hogi mujhse ....

    ek sacchai hai bus ye...
    Aapki kavita ke 'Generalised'Dard ko jab ek din Índividually'mehsoos kiya tha to likha tha:'

    Gaon uple jharne sarsoon aur wo pagdandiyan...
    meri to himmat nahi main khush rahoon wo bhoolkar.

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  29. सचमुच विस्थापन का दर्द वही जान सकता है जिसने झेला हो ...आपने इस दर्द को बखूबी से बयां किया है ...खिड़की से दिखाई देते पेड़ कभी नहीं जान सकते, उखड़े पदों का दर्द .....
    पर वाणी गीत की बात भी बहुत अच्छी और सच्ची लगी ...नारियों ने बखूबी इस काम को अंजाम दिया है ...अपनी जड़ों से उखड कर दूसरी जगह जमना और घनी छाया भी देना ...उन्हें अच्छी तरह आता है ...बधाई वाणी...

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  30. Nostalgia ...is always poignent !
    We are Nomads ...

    " we look before & after
    & pine for what is not,
    Our sincerest laughter
    with some pain is fraught "

    Nice poem. Nice post.

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  31. आप कविताओं में सामाजिक दर्द को बेजोड़ तरीके से उठाते हैं ........... किसी न किसी बिम्ब से ....... किसी बात को जोड़ कर गहरी बात कह जाते हैं ......

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  32. bhitar ka dard kayi dino baad ubhar aaya.
    vagrancy karte karte jab pahli baar dilli aaya to do pankitiyan anayas hi ho gayi thi.
    shayad aaj hi ke din ke liye
    " ye logon se suna tha
    hai shahar bada dilli
    khanabadosh the hum
    aana hi pada dilli.

    satya ..a vagrant (khanabadosh)

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  33. बिलकुल सही कहा उखडे पौधों का दर कोई नहीं जान सकता बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है शुभकामनायें

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  34. बधाई स्वीकारें इस सुंदर प्रस्तुती पर बहुत भावुक कर गयी आपकी ये कृति मैं भी शामिल हूँ आप की इस व्यथा मैं.हर बार तबादले के बाद नयी जगह जाओ और फिर अपनी जड़ें ज़माने की कोशिश करो बहुत मुश्किल काम है

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  35. बहुत ही सुन्दर रचना
    मार्मिक अभिव्यक्ति
    यादगार पोस्ट

    आभार


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  36. नई पौध की नियती बन चुके विस्थापन के दर्द को
    लोहे के घर से
    जन-जन तक पहुंचाने के लिए
    धन्यवाद

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